Home » आत्मकथ्य

आत्मकथ्य

साहित्य का आधार जीवन होता है| इसी आधार पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है| उसकी दीवार, आंगन, घर बनते हैं, परंतु बुनियाद मिट्टी के नीचे दबी रहती है| जीवन परमात्मा की सृष्टि है, और साहित्य मनुष्य की सृष्टि है| मनुष्य किसी ना किसी खोज में जीता रहता है| किसी को परिवार में, वन-उपवन, ऐश्वर्य में, तो किसी को समाज की स्थिति, परिस्थिति, वातावरण आदि में अपनी खोज का प्रारूप मिलता है| अपने देश काल से प्रभावित होकर वह विचलित हो जाता है, और यह व्याकुलता आत्मा की तरह साहित्य का रूप ले लेती है| सच्चा साहित्य कब कभी पुराना नहीं होता| वह सदा नया रहता है| घर के परिवेश का प्रभाव घर के हर व्यक्ति पर कुछ ना कुछ तो पड़ता ही है, मगर साहित्य पर रुझान मेरे बाबूजी के कारण पड़ा| मेरा जन्म पश्चिम बंगाल में हुआ वही मुझसे 5 वर्ष बड़ी दीदी और मेरे दो भाइयों का जन्म हुआ| दीदी बाकुंडा में अपने मामा के यहां पली-बढ़ी और विवाह तक वही रही| बाबूजी का जीवन संघर्षमय था, गांव में खेती किसानी के बीच बाबूजी इंजीनियरिंग का आखरी साल पढ़ नहीं पाए| बंगाली ब्राह्मण के घर में जन्म लेने के कारण परिवार धार्मिक था हर प्रकार के तीज त्यौहार होते थे| श्री दुर्गा पूजा, काली पूजा, सरस्वती, षष्ठी,  महालय आदि विधि-विधान से पूजा अर्चना होती थी, इसका प्रभाव बचपन से ही मेरे अंदर प्रवेश कर चुका था| बाबूजी झांटी पहाड़ी, हजारीबाग में नौकरी करते थे,  कभी-कभी परिवार का साथ उन्हें मिलता था| लगभग 6 वर्ष बाद 1953 में बाबूजी वहां से स्थानांतरित होकर परासिया जिला-छिंदवाड़ा में डब्ल्यू.सी.एल के ऑफिस में हेड क्लर्क के पद पर आसीन हुए तब हमारी शिक्षा प्रारंभ हुई| बाबूजी का अंग्रेजी, बांग्ला और सामान्य ज्ञान बहुत अधिक था| ऑफिस से घर आकर हमें कमरे में बैठा कर पूछा करते,आज क्या पढ़ा, कितना सीखा और किस-किस की किस प्रकार मदद की| फिर कहते इसे लिखो इस प्रकार यह हमारा दैनिक नियम था| रात्रि में बाबूजी स्कूली किताबों के अलावा अखबार की खबरें बताते और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान देते | हम बड़े हुए स्कूली शिक्षा शासकीय पंचवेली स्कूल में विज्ञान विषय के साथ हुई, वहां हमारे प्राचार्य श्री बक्शी जी, श्री तिवारी जी रहे, वे प्रार्थना स्थल पर सस्वर गाना गाने के लिए मुझे आगे खड़े करते| तिवारी जी मेरे गाने की हमेशा प्रशंसा करते, और हर उत्सव – 15 अगस्त, 26 जनवरी और वार्षिक स्नेह सम्मेलन में मुझे सांस्कृतिक प्रोग्राम में नृत्य और गान के लिए आगे करते| इस तरह मेरा आकर्षण संगीत के प्रति बड़ा और वैसे भी बंगाली परिवार में नृत्य गीत की प्रधानता रहती ही है| मेरे बाबूजी मेरी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, इसलिए मुझे एक वर्ष बी.एस.सी. पास करने के लिए होम साइंस कॉलेज जबलपुर में दाखिला कराया| हॉस्टल का कड़ा अनुशासन वहां का माहौल मुझे रास नहीं आया, मैं हर दिन उदास रहती, रोती, बाबूजी से कहती, “मुझे यहां नहीं रहना मुझे आकर ले जाएं|” हर बार बाबूजी हमें समझाते, परंतु मेरे रुदन से अंततः मुझे बाबूजी परासिया ले आए| कॉलेज का सत्र आरंभ हुए 3 माह हो चुके थे, सीट भर चुकी थी, मायूस होकर मुझे बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लेना पड़ा| कला संकाय में अध्ययन करने के लिए मुझे बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा| बी.ए. में मेरे विषयों में राजनीतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र, हिंदी साहित्य के अतिरिक्त अनिवार्य विषयों में सामान्य हिंदी और अंग्रेजी  थे| राजनीति शास्त्र के मेरे गुरु आदरणीय श्री एच. एस. उप्पल थे, जैसे तैसे कुछ समझ पाती थी| परंतु अर्थशास्त्र के गुरु जी डॉक्टर पी. आर. मिश्रा जी थे, जिनकी भाषा पल्ले नहीं पड़ती थी , लगभग एक माह के बाद, मेरी उदासी, हताशा ने इस विषय को छोड़ने के लिए विवश किया| मैं लगभग रोते हुए प्राचार्य महोदय श्री आर. एल. यादव के पास पहुंची| उन्होंने मुझे अर्थशास्त्र का वैकल्पिक विषय अंग्रेजी साहित्य लेने का सुझाव दिया बस मुझे मनोमुराद मिल गई| अंग्रेजी साहित्य प्राचार्य स्वयं एवं हमारे आदरणीय सर श्री एम.एम. शर्मा जी बहुत ही अच्छा पढ़ाते थे |मैंने शुरू में बताया था अंग्रेजी भाषा पर मेरे बाबूजी ने बचपन से ही बहुत अच्छी शिक्षा दी थी, इसलिए इस विषय में अच्छे अंक मिलते थे| हिंदी साहित्य के हमारे गुरुजी डॉ. एस. पांडे और डॉ. राममूर्ति बहुत अच्छा पढ़ाते थे| मैंने 3 वर्ष शासकीय पंचवेली महाविद्यालय में गुजारे| 3 वर्ष मेरे जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों में से एक है| इस दौरान हर बार मेरे द्वारा प्रदर्शित सांस्कृतिक कार्यक्रम अमूल्य रहे| इसके बाद से संघर्षमय जीवन की शुरुआत हुई| बाबूजी चाहते थे मैं जबलपुर से अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. करु| मेरा प्रवेश हवाबाग कॉलेज जबलपुर में हो गया, हॉस्टल जाने की सारी तैयारी हो चुकी थी, बस दूसरे दिन प्रातः जाना था| अब क्या था? शाम को प्राचार्य जी डॉ. राम मूर्ति, डॉ. अरुण दुबे, डॉ. पांडे सहित चार और प्राध्यापक गण मेरे घर आए और बाबू जी से कहने लगे, “आज ही हमारे महाविद्यालय में हिंदी विषय में एम.ए. खोलने की स्वीकृति मिली है|” वर्षों से सागर विश्वविद्यालय से इस हेतु मांग की जा रही थी, हम सभी चाहते हैं, पहले- नये सत्र में मेधावी छात्रा आप की पुत्री बुला इस कॉलेज में हिंदी विषय में एम.ए. करें| बाबूजी सकपका गए अंग्रेजी में एम.ए. कराने के लिए सारी औपचारिकता के बाद नई प्रक्रिया? मन मसोसकर अनिच्छा से, मिट्टी के माधव बाबूजी ने हामी भर दी| बाबूजी कभी किसी को उदास नहीं कर पाते थे| मैंने अपने मन को अंग्रेजी की बजाए हिंदी में ढाल लिया | 2 वर्ष तक पढ़ाई के अलावा साहित्य सृजन भी चलता रहा|  इसकी प्रेरणा मुझे स्कूली जीवन से ही बाबू जी और डॉ. राममूर्ति जी से मिली| मैं अपने गुरु भाई, मार्गदर्शक डॉ. राममूर्ति जी के प्रति  कृत-कृत हूँ| बचपन से ही उन्होंने कविता लिखने से आरंभ करने को कहा| कभी फूल, पत्ते, औस, रात्रि, सूरज, प्रातः, हवा और झरने विषय पर मेरी कविताओं को बढ़ावा दिया| कभी भूलों को सुधारा तो कभी डांटा भी| धीरे-धीरे मेरी छोटी बड़ी कविताएं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही है|

एम.ए. के प्रथम वर्ष में सागर विश्वविद्यालय में टॉप रैंकिंग हासिल की इस आधार पर मेरे पास कन्या महाविद्यालय बालाघाट से एक दिन पत्र मिला, मैं फाइनल एग्जाम के बाद उस महाविद्यालय में व्याख्याता के पद पर नौकरी करूं| मेरे बाबूजी एक बार जान ही चुके थे जब डॉक्टरी पढ़ाई की इच्छा से मेरा प्रवेश शासकीय होम साइंस कॉलेज जबलपुर में प्रवेश के बाद में घर से दूर नहीं रह पाई, दूसरा नियति ने जबलपुर में अंग्रेजी में एम.ए. न करने की स्थिति में जाने नहीं दिया, और अब अकेली बालाघाट में कैसे रह पाएगी, कई बार विचार के बाद, बाबूजी ने मां सरस्वती की इच्छा जान बालाघाट में नौकरी के लिए हामी भी भर दी|मेरी एक सहेली माया बावसे को भी ऐसा प्रस्ताव बालाघाट से मिला| हम दोनों को साथ मिला, क्योंकि यह महा विद्यालय अशासकीय था,प्रारंभ में अच्छे मेधावी व्याख्याता को रखना था. खैर कुछ भी हो यहां भी मेरा अध्यापन के साथ-साथ साहित्यिक रचनात्मक लेखन कार्य चलता रहा |

नौकरी के 3 वर्ष के बाद मेरा विवाह हुआ 3 वर्ष बाद मेरी बेटी ने मेरे घर परासिया मैं मां के संभाल-सुरक्षा में बड़कुही अस्पताल में जन्म लिया| पुत्री चीनू प्रारंभ से माँ-मासी लाड़ प्यार से पली| घर में पहली बेटी के जन्म से मामा-मासी की लाडली थी| मैं माह में एक बार यहां बेटी के पास आती थी| शनिवार की शाम 5:00 बजे की बस से रात्रि 2:00 बजे यहां पहुंची थी| मेरे पति यहीं पर इलेक्ट्रॉनिक्स के व्यवसाय में थे, रात्रि में मुझे लेने बस स्टैंड पहुंचते थे| मेरा मातृत्व पुत्री को देखने के लिए व्याकुल हो उठता था| 6 माह माह की बच्ची को छोड़कर ढाई सौ किलोमीटर दूर रहना बहुत दुख दाई था, रविवार को दिनभर बच्ची के साथ, पुनः रात्रि 8:00 बजे रवाना होती, और सुबह 6:00 बजे बालाघाट पहुंचकर अपने कॉलेज की व्यवस्था में व्यस्त हो जाती| यह सारी अनुभूतियां, मेरी रचना संसार की बुनियाद थी|

संघर्षमय जीवन  के बीच में मैंने पी.एच.डी. उपाधि “प्रगतिशील कथा साहित्य में अमृतराय के कथा साहित्य का विशेष अनुशीलन” विषय पर प्राप्त की, इस दौरान मुझे बार-बार परासिया, सागर जाना पड़ता था| कई बार साक्षात्कार हेतु अमृत राय जी के घर इलाहाबाद भी गई अमृत राय जी के अमूल्य प्रेरणा को भुलाया नहीं जा सकता| मेरे पति और बेटी चीनू के साथ हम जब भी इलाहाबाद में अमृत जी के घर गए, भोजन किए बिना नहीं आए| दो बार तो हम उनके घर रुके हैं | विशाल अध्ययन कक्ष को देखकर मैंने सोचा मैं भी कभी अपना ग्रंथालय बनाऊंगी जो आज सच हो गया| हां, तो अमृत जी कैसे थे? इस पर लिखूं तो एक पुस्तक बन ही जाएगी वह बन गई मेरी उपाधि से प्रकाशित पुस्तक “अमृत की कलम से” की प्राप्ति से बालाघाट महाविद्यालय के शासनाधीन होने के बाद शासकीय पंचवेली महाविद्यालय में मेरा स्थानांतरण हो गया| अब सब कुछ ठीक चलने लगा| बालाघाट में रहते हुए अनेक व्यस्तता के बावजूद समाज शास्त्र में एम.ए. किया| इसका प्रमुख कारण यह था कि समाज से ही साहित्य है, समाज से ही जीवन है| जीवन में साहित्य की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता| जीवन केवल जीना, खाना, घूमना, सोना, जागना और मर जाना नहीं है| यह तो पशुओं का ज्ञान है| जीवन में नकारात्मक और सकारात्मक दो प्रकार की प्रवृत्तियां काम करती है, जो समाज से ग्रहण किया जाता है| कलम हाथ में लेते ही हमारे सिर पर बड़ी भारी जिम्मेदारियां आ जाती है| समाज में क्या है? प्रवृत्ति, परिवार ,नियम आदि की विस्तृत जानकारी हमें समाजशास्त्र से प्राप्त होती है, इसलिए मैंने भाषा शास्त्र और समाजशास्त्र को जीवन के अभिन्न अंग माने|

बालाघाट में रहते हुए मेरे प्रेरणा स्त्रोत अमृतराय पर शोध कार्य किया सागर विश्वविद्यालय के आचार्य डॉक्टर बलभद्र तिवारी के निर्देशन में सुप्रिया पब्लिकेशन से शोध पुस्तक अमृत की कलम से को प्रकाशित कराया यह मेरी पहली प्रकाशित पुस्तक है इसका विमोचन भी अमृत राय के वरद हस्त से हुआ|

 परासिया महाविद्यालय में जो मेरे गुरु थे, जिन्होंने मुझे लायक बनाया, वह मेरे सहयोगी हो गए| अध्यापन कार्य के अतिरिक्त समय में मेरी उंगलियां प्रष्ठों पर शब्द उकेरतीरहती| ना जाने कितने अनुभवो, दर्द को, समाज में पनपते अत्याचारों को कविता में समेटती रही| घर परिवार की छोटी से छोटी बात को महत्वपूर्ण समझा| मेरे ज्ञानी शिक्षक पूज्य बाबूजी ने 1 दिन कहा, जो उचित हो वही करो, अपेक्षा को अधिकार और हक ना समझो| बस मुझे मेरी कविता संग्रह का नाम मिल गया| शेवाल प्रकाशन गोरखपुर से प्रकाशित कविता संग्रह अपेक्षाएं हक नहीं होती बहुत चर्चित और प्रशंसित हुई| अपने समय का सदुपयोग करते हुए आलोचनात्मक पक्ष को उभारा संस्थानों को याद किया और शब्द बद्ध चिन्हों को पुस्तक रूप प्रदान किया| अपने समय को खूब देखा, और साहित्य में भर दिया| इस तरह मेरी तीसरी पुस्तक अपने समय के साहित्य पर सोचते हुए “रचना प्रकाशन” जयपुर से प्रकाशित हुई इसके प्रकाशन में जयपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति महान कवि, आलोचक, निबंधकार, डॉ. विश्वभर नाथ उपाध्याय की बहुत मदद मिली| पुस्तक के विषय में जो यथार्थ चित्रण किया वह पुस्तक में है|

बांग्ला भाषी होने के कारण मुझे बांग्ला साहित्य में विशेष रूचि थी| कर्म भाषा हिंदी होने से पुस्तकें एवं सभी रचनाएं हिंदी में प्रकाशित हुई| बांग्ला साहित्य में में विशेषज्ञ तो नहीं थी ,परंतु अंतर मन में ऐसा कुछ था जिसे कलम बंद कर बांग्ला साहित्य से हिंदी भाषा भाषियों का परिचय कराने के उद्देश्य से एक पुस्तक लिखने की योजना थी| इस हेतु में पश्चिम बंगाल के लगभग हर बड़े साहित्यकारों की जानकारी हेतु शोध-प्रवृत्ति – सह कोलकाता, जमशेदपुर, वर्धमान, दुर्गापुर, शांतिनिकेतन बोलपुर में धनीपुर के अतिरिक्त जहां से भी कुछ सामग्री मिलती उनका अध्ययन किया| अन्य अन्य क्षेत्रों जैसे झारखंड, बिहार, पटना, रांची, दिल्ली, इलाहाबाद, वाराणसी आदि के ग्रंथा लाइक का उपयोग किया अनेक शमशाद कर्म के बाद पन्ने दर पन्नों को भरा पड़ा और पुनर लेखन किया तब कहीं में “बांग्ला साहित्य सृष्टि और दृष्टि” के नाम से रचना प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित कराया इस पुस्तक में मैंने बांग्ला साहित्य के आदिकाल से वर्तमान तक का इतिहास लिखा पुस्तक विर्क रूप की सीमा को देखते हुए सभी सभी महत्वपूर्ण साहित्यकारों का चित्रण किया|

समाज में रहते हुए ना कितने अनुभव लगाओ अलगाव रिश्ते विडंबना याचना अत्याचार यादें हमारे इर्द-गिर्द हम से लिपटे होती है होते हैं बचपन की सीडी को मांगते हुए इस स्थिति में जब अपने को पाया तो परिवर्तन ही परिवर्तन देखें परिवार में आज की स्थिति से हर कोई परिचित है आज भी संयुक्त परिवार है परंतु रिश्तो की अहमियत में अंतर है पहले भी परिवार में नाना नानी दादा दादी चाचा चाची मां पिता भाई बहन रहते थे आज भी सब रिश्ते तो हैं परंतु रिश्तो की पहचान खो गई है पहले सब की दुनिया एक ही घर में बिना तनाव के होती थी परंतु आज दादा दादी नाना नानी मां पिता को घर में एक कोना मिला है या वृद्ध आश्रम ही उनका घर है| जिसने उंगली पकड़कर चलना सिखाया अब वही छड़ी बनने के बदले धक्का देता है लो| लोगों की आंखों का पानी सूख गया है क्या बच्चे युवा कभी वृद्धावस्था की दहलीज पर नहीं पहुंचेंगे परिवार का परिवार से समाज से बाहर मन से मन का मानव पशु पक्षी पेड़ पौधे जल हवा सभी से हमारा रिश्ता है सभी का निर्वाह जरूरी है रिश्तो की अहमियत जीवन की सर्वोपरि आकांक्षा है इसे नकारा नहीं जा सकता रिश्तो रिश्तो में दूरी कितनी पीड़ा दायक है इसे एक अनुभवी ही जानता है इन्हीं सब विचारों ने मेरी “अहमियत” कविता संग्रह का संकलन किया | इस संग्रह की कमोबेश कविताओं में रिश्तो की अहमियत को ध्यान में रखा गया है पार्वती प्रकाशन इंदौर से प्रकाशित यह पुस्तक पाठकों के हृदय में मार्मिक संवेदना उत्पन्न कर सके तभी अहमियत की अहमियत सामने प्रकट होगी|

विविध विषयों पर अपनी जानकारी साझा करने की कुल आहट में “साहित्य विचार और अनुभूति” की रचना हुई जिसमें सृजनात्मकता की एक मुकम्मल पहचान दिखाई देती है|

 प्रत्येक देश की संस्कृति सभ्यता एवं दर्शन के मूल तत्व उस देश की जलवायु प्राकृतिक घटा उपज आदि भौतिक परिस्थितियों के अनुसार निर्मित होती है और इन सब का संकलन संकलित प्रभाव वहां के साहित्य को एवं समीक्षकों पर पड़ता है इस प्रकार किसी देश के साहित्य की समीक्षा दृष्टि मुद्दा उस देश के 22 तथा अत्यंत दोनों प्रकार की विशेषताओं से उत्पन्न होती है समीक्षा का अंतिम साध्य मात्र साहित्य नहीं जीवन भी है उसकी प्रगति विकास व्याख्या खोजबीन दूरदृष्टि समीक्षक को समीक्षा दृष्टि प्रदान करती है|

समीक्षा के आईने से खंड 1 समीक्षा संकलन में कुल 39 रचनाओं की समीक्षाएं हैं मैंने अपने समीक्षा लेखन में परिमार्जन एवं पुनरुत्थान का समर्थन किया है किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मैंने कुछ भी नहीं लिखा समीक्षा संतुलन की रचना का प्रयत्न मैंने एक प्रकार का ज्ञान- यज्ञ समझकर किया है |

इस प्रकार पार्वती प्रकाशन इंदौर द्वारा फरवरी 2016 में समीक्षा के आईने से खंड एक पुस्तक प्रकाशित हुई|

 समाज को बदलने में साहित्य के अहम भूमिका होती है इसके लिए आवश्यक है समाज के सच को सामने लाया जाए| जिस समाज में जितनी अधिक असमानता होगी वहां उतनी अधिक अव्यवस्था और आक्रोश होगा आर्थिक असमानता सर्वहारा को देनी बनाती है|

स्वस्थ परिवर्तन एक स्वाभाविक परिणति है कई| कई बार यथार्थ की वैज्ञानिक पड़ताल किए बिना रचना कर्म समकालीन नहीं हो पाता ऐसी रचना जिनके पास या वैज्ञानिक दृष्टि नहीं होती मुख्यधारा से कट जाती है यथार्थ की जांच परख हमेशा ही रचनाकार की क्षमता और उनकी दृष्टि पर निर्भर करती है लेखक अपनी स्वजन भूमि से हटकर कुछ नया करने का प्रयास करता है तो पुराना बंद कर अपने आप परिवर्तन का रूप धारण कर लेता है हर रचनाकार की कोशिश होती है कि वह समाज को कुछ नया दे पहले से हटकर कुछ अलग कुछ ऐसा जो किसी दूसरे ने ना किया हो अभ्यास सोच और चिंतन से नए सृजन की संभावना बनती है साहित्य की संस्कृति का एक पक्ष सुरजन परिदृश्य होता है तो दूसरा पक्ष दूसरे पक्ष में अभिव्यक्ति कला होती है|

साहित्य प्रथम तक और अंततः एक भाषिक संरचना है यह मानवीय अभिव्यक्ति का संश्लिष्ट और उत्कृष्ट रूप है जो मानव संवेदना की तह तक पहुंचने का काम करती है साथ ही समाज के साथ रूबरू होने और विचारों तक जाने का काम करती है|

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए रंग प्रकाशन इंदौर द्वारा मेरी शोध सृजन परिदृश्य पुस्तक प्रकाशित हुई इसमें दलित विमर्श और बांग्ला साहित्य को प्राथमिकता दी गई है| समय गतिशील है परिवर्तनशील है बलवान है समय की महती शक्ति के आगे कुछ भी नहीं उसकी अपार शक्तियों में ऐसे तत्व छिपे हैं जो दिखाई नहीं देते हैं अपना काम करके निश्चिंत भाव से घूमता रहता है संपूर्ण ब्रह्मांड समय से भयभीत है समय को कोई रोक नहीं सकता पूर्व में सूर्य का उदय और पश्चिम में अस्त होना समयानुसार होता है|

समय को मुख्य बिंदु में रखते हुए जितनी भी कविताएं समय प्रवाह कविता संकलन में है| सब पर समय की छांव है कुछ कविताएं समय पर ही लिखी गई हैं चाहे भवितव्य शरण हो श्रवण शीलता नाम समय चक्र अब और नहीं जिंदगी रिश्ते समकालीन नजरअंदाज अनंत विस्तार आदि कविताओं को दार्शनिक की आंख से पढ़ा जाए तो कमोबेश समय का चमत्कार ही दिखेगा कुछ होता है कुछ होने वाला है कुछ होगा सब होगा या नहीं सब समय देवता ही तय करेगा|

 आगे बढ़ने के लिए एक-एक सीढ़ी से चढ़ना होता है उसी तरह तरह सृजन या रचना पहली सीडी से होते हुए दूसरी सीडी आलोचना है अर्थात रचना की पुनर्रचना ही आलोचना है उक्त आलोचना श्रजन रचना की अहम नेता को ध्यान में रखते हुए मेरी इस पुस्तक आलोचना के बहाने में साहित्य संबंधी विभिन्न मुद्दों जैसे साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता क्यों है उसकी सीमाएं और संभावनाओं पर प्रकाश डाला गया है| तुलनात्मक अनुशीलन में ओपन या सिख कथा शिल्प की दृष्टि से प्रेमचंद और शरतचंद्र के उपन्यासों में गरीब नारी की दयनीय दशा के साथ प्रगतिवादी विचारों तक घटना आदि जो भी बंगाल में पाई जाती है इन विभिन्न समस्याओं का विस्तृत उल्लेख हिंदी और बांग्ला शमशीर उपन्यास कारों का तुलनात्मक अध्ययन में है| कोई कवि ना अपने पाठक चुन सकता है ना श्रोता दशकों से कविता मुख्यतः पढ़े जाने के लिए लिखी जाती है सुने जाने के लिए नहीं उस प्रस्तुत पुस्तक गुंजन सप्तक 9 कवियों की कविताओं का संग्रह है जिनमें मेरी भी कविताएं है|

चूंकि जीवन स्वयं सत्य है संस्मरण उनका हिस्सा है तो हमारे यात्रा वृतांत भी सत्य कथा ही होते हैं इसी में पांडिचेरी की आलोकीक यात्रा का वर्णन है  साक्षात्कार भी हमसे ही संबंधित हमारी ही सत्य वस्तु है भले आकार में लघु या वृद्ध  ही क्यों ना हो वास्तव में साहित्य विश्वास और विश्लेषण की वस्तु है लेखक उन्हें अपनी चेतना और सामर्थ्य के अनुसार जमा धारण करवाता है उसे संस्मरण, जीवनी, व्यंग निबंध के, यात्रा या बाल कथा, सत्य कथा आदि किसी भी रूप में अपनी बात कहता है यह सत्य कथा के लिए लागू नहीं होता है यह लघु या दीर्घ कुछ भी होता है इस तरह संस्मरण आत्मकथा वृतांत या साक्षात्कार की भी अलग पहचान होती है उक्त सभी तथ्य “समकालीन साहित्य विविध स्वर” रंग प्रकाशन इंदौर में है|

 अंतर्मन में निहित विचार भावनाओं का उद्वेलन कविता को जन्म देता है अभिव्यक्ति अंतर्मन की पहचान होती है समाज परिस्थिति और रचनाकार की स्वयं की दृष्टि संपन्नता ही उसका पाते बनती है कविता अंतर्मन के बीच से उपजी वह कोपल है जो अपने साथियों को वितरित करने का सामान सामर्थ्य रखती है उपर्युक्त भाव विचारों की दृष्टिगत विचारों को दृष्टिगत रखते हुए मैंने अपने अंतर्मन से निकले शब्दों को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश की है जो अंतर्द्वंद कविता संकलन में है|

रचनाकार स्वयं के समान संस्कार और रुचि वालों को ध्यान में रखकर लिखे यह आवश्यक नहीं है कि वह सार्वभौमिकता को ही चुनता है अपने संस्कार अनुभव संवेदना आदि की रस्सी पकड़ कर लिखता है ना कि उससे कम ना उससे ज्यादा वह केवल और केवल उसे पाठक के लिए छोड़ देता है कि वह उसे अपने ढंग से चाहे जैसा समझे चाहे जैसा अनुभव करें चाहे जैसी व्याख्या और आलोचना करें आगे बढ़ने के लिए एक-एक सीढ़ी से चढ़ना होता है उसी तरह सृजन याद रखना पहली सीढ़ी से होते हुए दूसरी सीढ़ी समीक्षा है मतलब रचना की पुनर्रचना ही समीक्षा है इस तरह समीक्षा के आईने से खंड 3 पार्वती प्रकाशन इंदौर से प्रकाशित हुई|

मैं समझती हूँ साहित्य में अनुवाद का जितना महत्व है, उतना ही विभिन्न भाषाओँ क साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन का है| जिस प्रकार अनुवाद हमें देशी-विदेशी भाषाओँ के साहित्य से परिचित कराती है, उसी प्रकार तुलनात्मक अध्ययन भी एनी भाषाओँ के लेखन को जानने-समझने का अवसर देता है| “रविन्द्र नाथ टैगोर और अन्य प्रतिनिधि बांगला रचनाकार” पुस्तक में कई रचनाकारों के कृतित्व का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है|

अंतर्मन में निहित विचार भावनाओं का उद्दवेलन कविता को जन्म देता है| अभिव्यक्ति अंतर्मन की पहचान होती है | समाज, परिस्थिति और रचनाकार की स्वयं की दृष्टि सम्पन्नता ही उसका पाथेय बनती है| कविता अंतर्मन के बीज से उपजी वह कोपल है, जो अपनेसाथ कईयों को विचलित करने का सामर्थ्य रखती है|इन्हीं कोपलो को संजोने का कार्य प्रेरणा प्रकाशन  भोपाल से प्रकाशित अंतर्मनमें किया गया है|

अपना जीवन मैंने मां सरस्वती को अर्पित किया है इसका फल मुझे द संडे इंडियन नोएडा से प्रकाशित प्रसिद्ध पत्रिका से मिला सितंबर 2011 में 21वीं सदी की 111 श्रेष्ठ महिला साहित्यकारों में स्थान मिला यह मेरे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है |आकाशवाणी से 20 वर्षों से बाल कथा कविताएं संस्मरण यात्रा वृतांत शोध पर प्रज्ञा वार्ताएं साक्षात्कार समीक्षाएं प्रसारित हो रही है विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर साहित्य के विभिन्न विधाओं में रचना प्रकाशित होती है| लगभग 30 वर्षों से देश के निर्णय विभिन्न संस्थानों में आयोजित संगोष्ठी को में मेरी पूर्ण भागीदारी रही है एवं अभी भी आयोजनों में आलेख वाचन हेतु सम्मिलित होना जारी है प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा मुझे अली को सम्मान प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुए हैं|

बांग्ला भाषी होने और उसके प्रति रूचि होने के कारण मैंने “बांग्ला साहित्य और दृष्टि” की रचना की जो २०१२ में रचना प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुई| इसमें बांग्ला साहित्य के इतिहास में आदिकाल से प्रारंभ कर अभी तक का इतिहास है- जो हिंदीभाषियो के ज्ञानवर्धन के लिए उपयोगी है|

समीक्षा के आईने से द्वितीय खंड” अयन प्रकाशन दिल्ली से २०१८ में प्रकाशित हुई| इसमें विभिन्न साहित्यकारों की कृतियों पर समीक्षा की गई- जिसे पाठकों ने बहुत सराहा|

मुझे हमेशा शोध, आलोचना में लगाव है| शोध से न केवल नई दृष्टि मिलती है, अपितु ज्ञान का अनुपम भण्डार सामने आता है| इसे दृष्टिगत रखते हुए मैंने “साहित्य और मीमांसा: शोध परक दृष्टि” की रचना की जो वर्ष २०१९ में हिंदी परिवार इंदौर द्वारा प्रकाशित की गई|

२०१२ में “बांग्ला साहित्य: सृष्टि और दृष्टि” का प्रकाशन रचना प्रकाशन जयपुर द्वारा किया गया था| यह पुस्तक पाठकोमें इतनी अधिक चर्चित और प्रशंसित हुई की रचना प्रकाशन ने इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण भी सन २०२१ में प्रकाशित किया|

मेरी सर्वश्रेष्ठ पुस्तक-“हिंदी और बांग्ला : समशील उपन्यासकारों का तुलनातमक अध्ययन” है जो २०१३ में अमन प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित हुई| यह पुस्तक अमूल्य इसलिए है, कि भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन इ प्रदीर्घ परम्परा रही है| भारतीय भाषा सेतु होने के कारण हिंदी भाषा और साहित्य का दायरा, इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा है| विभिन्न भाषा के लिए तुलनात्मक साहित्य एकमात्र आवश्यकता है| प्रस्तुत कृति डी.लिट्. उपाधि से संग्रहित है|

यह रचना तुलनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित है| हिंदी और बांगला उपन्यासकारों को लेकर कथ्य शिल्प आदि पर ध्यान दिया गया है| तुलनात्मक अध्ययन एक सेतु का काम करता है, इस बिंदु को केंद्र में रखकर ही इस रचना में मैंने तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता पर विशेष विचार व्यक्त किया है| इस पुस्तक का फलक व्यापक है| अत्यंत श्रमसाध्य कार्य किया गया है|

समयानुसार साहित्य में परिवर्तन होता रहता है| समय ही हमें रास्ता दिखाता है| यह पुस्तक ”अपने समय के साहित्य पर सोचते हुए” रचना प्रकाशन जयपुरसे २००२ में प्रकाशित हुई| इस पुस्तक में प्रकाशित आलोचनात्मक लेखन तथा पूर्व प्रकाशित लेखो से एक महिला आलोचक के रूप में उभरकर साहित्य क्षेत्र में इस भ्रमका निवारण कर सकी है, कि हिंदीमें साहित्य सृजन करने वाली लेखिकाएँ तो हैं परन्तु महिला आलोचकों की न्यूनता है|

महाविद्यालयों में नौकरी करते, पैसा कमाए, संचय किया और अब उसका सदुपयोग भी किया यह सच है कि पैसा जीवन में कितना भी जरूरी हो, जो तो है ही, पर उसके ऊपर कुछ चीजें हैं जिनके ऊपर पैसे को महत्व नहीं दिया जा सकता मनुष्यता, मनुष्य का आत्मसम्मान और मनुष्य का सृजन समाज का जो ढांचा बनता है , उसकी रचना के पीछे कोई ना कोई सोच और दृष्टि अवश्य होती है उससे उस समाज की मानसिकता पता चलती है| प्रारंभ में यह सोच लचीली होती है लेकिन धीरे-धीरे यह संकीर्ण और जड़ होती है| सामाजिक बदलाव भी तभी आता है जब हम में से कुछ के विचार बदलते हैं, सोच बदलती है, क्योंकि समाज हम ही से बना है, यह भी तय है कि बदलाव की शुरुआत के लिए साहस की जरूरत होती है| जीवन और जीवन के अनुभव- संबंध तो वही होते हैं बस उन्हें देखने का तरीका बदलता है| यही स्थिति मेरी रही है मैं कोई समाज से अलग नहीं प्रारंभ में जब आसपास की दुनिया में और मेरे जीवन में जो घट रहा था, उसकी ओर ध्यान जाना शुरु हो गया था और मन में कई ख्याल और प्रश्न उठने लगे थे, जीवन की परतें जितनी खुलती गई, जीवन की जटिलताएं, विडंबनाएं उतनी ही उभरती गयी|

सदैव अन्याय का विरोध, जरूरतमंदों की मदद, खुद का खुद को जोखिम में डालकर आगे बढ़ते रहना और पीठ में  छुरा भोंकने वालों पर भी प्रतिकार ना करना, सच्चाई का साथ देना जैसी सद्गुण विकृतियों ने मुझे संघर्ष ही दिया| इन सद्गुणों को विकृतियां इसलिए कह रही हूं क्योंकि मेरे इस स्वभाव ने मुझे पीड़ा और दर्द ही दिए हैं| इसमें अपने-पराए सब ने बदले में भावनात्मक एवं मानसिक शोषण के अलावा कुछ नहीं दिया| सभी ने राजनीति के पाँसे फेंके| कभी रिश्तो की आड़ में, तो कभी अपने कठिन समय की दुहाई देकर सिर्फ अपने स्वार्थ ही पूरे किए| अब तो मुझे लगता है वर्तमान परिवेश में मुझ जैसे लोग अनफिट हैं|  शोषण को देखते हुए चुप बैठना मैंने कभी नहीं चाहा, मेरी रचनाओं में चेतना, विमर्श, समीक्षा, विशेषतया इसलिए आ पाए हैं| कविताएं संघर्ष की विदूषताओ, वेदनाओं, परिवेश में अनुभूत तथ्यो की परिकल्पना को डालने की मात्र कोशिश की गयी है|

मेरी अभिलाषा है, जीवन पर्यंत साहित्य को सर-आंखों पर बैठाकर जीवन यात्रा पर चलती रहूं| मेरे शब्द, कलम और पृष्ठ केनवास मेरा साथ दे, ईश्वर से सदा यही कामना करती रहूंगी| शब्दों को शिल्पी बन, शब्द क्रम की उपासना, अर्चना, साधना, वंदना, आराधना, प्रार्थना, अभ्यर्थना करती रहूं|

मां शारदे मुझे शक्ति दे|”…………………

साहित्य सेवा हेतु सदैव समर्पित

 डॉ बुला कार………



Comments are closed.